difficulties of social research: सामाजिक अनुसंधान की कठिनाइयाँ- किसी भी अनुसंधान कार्य की कठिनाइयों का निर्धारण प्रायः उसकी विषय वस्तु करती है। सामाजिक अनुसंधान की विषय-वस्तु के ऊपर पूर्व नियंत्रण को क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। सामाजिक अनुसंधान के लिए अध्ययन की विषय वस्तु समाज है, जिसका विकास किसी निश्चित कालक्रम के अन्तर्गत नहीं हुआ और जिसमें रहने वाले विभिन्न सदस्य, सामूहिक चेतना के बल पर परस्पर सम्बन्धित है। इसका व्यवहार, प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति, विचारण परम्पराएँ आदि सदैव सामाजिक प्रक्रमों के अनुरूप बदलती रहती हैं। इस दृष्टि से सामाजिक अनुसंधान की अड़चनों का जन्म, अनुसंधान की विषय वस्तु है। अतः प्रकृति विज्ञानों के अन्तर्गत अनुसंधान कार्यों की कठिनाइयों का सामाजिक अनुसंधान की कठिनाइयों से पृथक होना स्वाभाविक है। सामाजिक अनुसंधान की विषय सामग्री/विषय वस्तु के कुछ विशिष्ट लक्षण हैं, जो भौतिक अथवा प्रकृति विज्ञान की विषय वस्तु में नहीं पाये जाते हैं। इन विलक्षणताओं को दृष्टि में रखते हुए सामाजिक अनुसंधान की कठिनाइयों को इन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
समस्या के साधन व लगातार परिवर्तन (Tools of problem & regular changes)- सामाजिक जीवन में सदैव परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिये समस्या को जन्म देने वाले कारकों से अवगत होने दे बाद भी उनके सापेक्षिक महत्त्व भी निर्धारित करना बड़ा कठिन है। सामाजिक जीवन में होने वाले अनवरत परिवर्तनों के परिणामस्वरूप किसी सार्वकालिक नियम अथवा सिद्धांत की प्रतिस्थापना में अवरोध उत्पन्न होता है। जिस भाँति सामाजिक जीवन उलझा हुआ है, उसी भाँति सामाजिक समस्याओं की प्रकृति भी उलझी हुई है। इसमें जटिलता है, अस्थायी तत्त्वों की प्रचुरता है। वही सामाजिक विज्ञान की एक विशेष विचारणीय समस्या है। लुण्डबर्ग के शब्दों में, “मानव के सामूहिक व्यवहार के एक सच्चे विज्ञान को सदैव प्रभावित करने वाला अवरोध इसकी विषय वस्तु की उलझन है।”
सामाजिक समस्याओं में एकरूपता का अभाव (Lack of similarities in social problems)- सामाजिक जीवन से संबंधित एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनकी समस्याओं का स्वरूप विभिन्न कालक्रमों के अन्तर्गत अलग-अलग होता है। किसी काल विशेष की समस्या का स्वरूप अपनी परिवर्तित समस्याओं से पूर्णतया पृथक् होता है। इनमें एकरूपता का अभाव होता है। जब प्रकृति विज्ञान के अन्तर्गत घटनाओं की प्रकृति एवं गुण सदैव समान रहते हैं, विभिन्न काल एवं स्थानों में इनका स्वरूप एक ही रहता है। लेकिन सामाजिक जीवन स्तर पर यह गुण व स्वरूप विभिन्न समय व भौगोलिक स्थितियों में अलग-अलग होते हैं। यह इसलिए कि मनुष्य चेतन है, सजीव है, उसकी सभ्यता व संस्कृति का विकास सदैव समय और स्थिति के अनुरूप होता चला आया है। अतः सामाजिक घटनाओं में एकरूपता का अभाव कोई स्वाभाविक नहीं है।
प्रतीकात्मक आधार (Nagtive base)- समाज विज्ञान के अन्तर्गत घटनाओं को समझने एवं परखने का आधार प्रतीकात्मक है। सामाजिक प्रथाएँ, परम्पराएँ व प्रतिक्रियाएँ इत्यादि मानवीय भावनाओं के ऊपर अवलम्बित होती है। मानव का अन्तर्जलीय इनका केन्द्रीय आधार है, लेकिन प्रकृति विज्ञानों के भीतर घटनाओं का उदय, अपने पूर्व प्रक्रम के अनुसार होता है. ये मूर्तरूप में होती है, जबकि सामाजिक घटनाएँ अमूर्त। इस कारण सामाजिक अनुसंधान में घटना के कारणों का प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट अवलोकन असंभव है।
समस्या द्वारा अनुसंधानकर्ता के प्रभावित होने की आशंका (Manipulation of investigator)-प्रकृति विज्ञान के अन्तर्गत अनुसंधानकर्ता का सम्बन्ध पदार्थ के साथ है। जो जड़ है, इहै, अचेतन है, लेकिन सामाजिक अनुसंधान में अनुसंधानकर्ता का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मनुष्य के साथ होता है जिसमें विविध भाव-विभाव आदि का अनवरत प्रक्रम मौजूद रहता है। ऐसी स्थिति में स्वयं अनुसंधानकर्ता के विषय-वस्तु द्वारा प्रभावित होने की आशंका रहती है। फलस्वरूप अनुसंधान के परिणामों के प्रति तटस्थता दिखायी नहीं देती, निभायी नहीं जा सकती। अनुसंधानकर्ता स्वयं भी उसी समाज की एक इकाई है, जिसका वह अध्ययन करता है। अतः अनुसंधानकर्ता के अन्दर भी मानव स्वभाव की कमियों का होना स्वाभाविक है। उसका धैर्य, धारणाएँ, विचार-भावना, संस्कार इत्यादि सदैव समस्या के द्वारा प्रभावित होते रहते हैं। जिस प्रकार किसी राजनीतिक संस्था का सदस्य, संस्था की दर्शन प्रणाली से अप्रभावित नहीं रहता, उसी प्रकार सामाजिक अनुसंधान में अनुसंधानकर्ता भी सामाजिक समस्या के प्रभाव से अछूता नहीं रहता।
विषय-वस्तु का गुणात्मक स्वरूप (Qualitative form of subject-matter)-सामाजिक अनुसंधान के अन्तर्गत अध्ययन की जाने वाली विषय-वस्तु स्वयं अनुसंधान के लिए अवरोध उत्पन्न करती है। गुणात्मक स्वरूप का तात्पर्य अमूर्त से है, जिसे अनुभव कर सकते हैं, किन्तु दृष्टिगत नहीं। सामाजिक विश्वास मान्यताओं व धारणाओं इत्यादि का स्वरूप गुणात्मक होता है। अतः प्रकृति विज्ञान की भाँति कोई निर्धारित मापदण्डों का उपयोग समाज विज्ञान के अन्तर्गत संभव नहीं।
सार्वकालिक भविष्यवाणी का अभाव (Lack of universal forcasting)-सार्वकालिक भविष्यवाणी से तात्पर्य, अपूर्व वचनों को प्रस्तुत करने से है, जो प्रत्येक काल में लागू हो सकें। सामाजिक अनुसंधान में विषय-वस्तु की परिवर्तनशील प्रकृति के फलस्वरूप इस प्रकार की भविष्यवाणी करना अत्यंत ही कठिन है। इसका प्रमुख कारण विषय-वस्तु तथा मनुष्य के परिवर्तन प्रधान अन्तर्जगत का होना है। समाज विज्ञान में किसी अवधि विशेष के संदर्भ में ही भविष्यवाणी संभव है, जिससमें सार्वकालिक व स्वदेशीय स्तर पर लागू होने वाले तत्त्वों का अभाव रहता है। प्रत्येक क्षेत्र की सामाजिक पृष्ठभूमि दूसरे क्षेत्र की सामाजिक पृष्ठभूमि से पृथक् होती है। अतः किसी एक क्षेत्र के आधार पर प्रतिस्थापित भविष्यवाणी दूसरे क्षेत्र में लागू करने पर सदैव असत्य सिद्ध होती है।