Criticism of the Purchasing Power Partiy Theory: प्रो. कैसिल द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त में अनेक कमियाँ हैं। यह सिद्धान्त विनिमय दर को निर्धारित करने तथा उसके परिवर्तनों की संतोषप्रद विवेचना करने में असफल रहा है। इस सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) यह सिद्धान्त पूर्णतः पूरा नहीं है- यह सिद्धान्त केवल यह व्यक्त करता है कि विनिमय दरों में उच्चावचन क्यों और कैसे हो सकता है? अतः इसे विनिमय दरों के निर्धारण का संतोषप्रद सिद्धान्त नहीं माना जा सकता है। वास्तव में यह सिद्धान्त केवल यह बताता है कि मुद्राओं की क्रय शक्ति में परिवर्तन होने पर उनकी विनिमय दरों में परिवर्तन हो जाता है। किन्तु यह सिद्धान्त यह नहीं बतलाता है कि विनिमय दरों का निर्धारण किस प्रकार होता है ? यथार्थ में विनिमय दर की समस्या उसकी माँग व पूर्ति की समस्या है। देश को अन्य वस्तुओं के मूल्य समान हो विदेशी मूल्य का मूल्य भी उसकी माँग व पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है। क्रय शक्ति समता सिद्धान्त केवल मुद्राओं की क्रय शक्ति की विवेचना करता है तथा उसकी माँग तथा पूर्ति से उसका कोई सरोकार नहीं है। अतः यह सिद्धान्त अधूरा है।
(2) क्रय-शक्ति मापने के उचित साधन का अभाव क्रय शक्ति समता का मापन भिन्न-भिन्न देशों में उनके निर्देशांक पर निर्भर करता है जो स्वयं दोषपूर्ण है। दो देशों के निर्देशांक की तुलना करना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि-
(1) निर्देशांक भूतकाल से संबंधित होता है, जबकि विनिमय दर का निर्धारण वर्तमान में करना है।
(ii) दो देशों के निर्देशांक के आधार वर्ष (Base Year) सदैव समान नहीं होते हैं।
(iii) विभिन्न देशों में निर्देशांक में सम्मिलित की जाने वाली वस्तुएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।
(iv) निर्देशांकों का आधार ऐसी वस्तुएँ भी हैं जिसका विदेशी व्यापार से कोई संबंध नहीं है।
अतः दोषपूर्ण निर्देशांक के आधार पर निर्धारित विनिमय दर सिवाय अवास्तविक विनिमय
दर के अलावा और क्या हो सकती है ?
(3) विनिमय दरों को प्रभावित करने वाले कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया- क्रय-शक्ति सिद्धान्त में भुगतान संतुलन में सम्मिलित होने वाले अनेक तथ्यों का ध्यान नहीं रखा तया है जो वास्तव में विनिमय दरों को प्रभावित करते हैं। दो देशों के मध्य-
(1) बीमा राशि का आवागमन।
(ii) स्कन्ध और अंश के क्रय-विक्रय से पूँजी का आवागमन।
(iii) विदेशी मुद्रा में बट्टा।
(iv) बैंकों के कथन है कि यह सिद्धान्त ‘संदेहास्पद’ पथप्रदर्शक है, उचित प्रतीत होता है।
पारस्परिक लेन-देन के कारण पूँजी का आयात-निर्यात।
(v) मुद्रा स्फीति की दिशा की अफवाह से पूँजी का आवागमन, और
(vi) विदेशी व्यापार का प्रभाव आन्तरिक क्रय-शक्ति पर तो विशेष नहीं पड़ता, परन्तु भुगतान संतुलन पर अवश्यमेव पड़ने के कारण विनिमय दरों पर भी पड़ता है। अतः इस सिद्धान्त की व्यावहारिक उपयोगिता लगभग समाप्त हो गई है।
(4) विनिमय दर में परिवर्तन का मूल्य स्तर पर भी प्रभाव- इस सिद्धान्त के अनुसार सामान्य मूल्य स्तरों में परिवर्तन का प्रभाव विनिमय दरों पर पड़ता है। परन्तु यह कहना कि विनिमय दरों का प्रभाव देश के मूल्य स्तरों पर नहीं पड़ता है। परन्तु यह कहना कि विनिमय दरों का प्रभाव देश के मूल्य स्तर पर भी पड़ता है। उदाहरणार्थ माना जापान से भारत को पर्याप्त पूँजी का बहिर्गमन हो रहा है। इसके कारण जापानी मुद्रा (Yen) का मूल्य भारत में कम हो जायेगा। यदि जापान भारत से कच्चे माल (लोहा) का आयात करता है तो उससे कच्चा माल महँगा हो जाता है कि विनिमय दर में परिवर्तन का प्रभाव मूल्य स्तर पर भी पड़ता है। प्रायः यह देखने में आया है कि जब कभी विनिमय दर में कमी कर दी जाती है। (मुद्रा अवमूल्यन करके) तो भी देश में चलन की सामान्य क्रय शक्ति घट जाती है। जून, 1966 में भारत द्वारा रुपये के अवमूल्यन किये जाने पर देश की रुपये की क्रय-शक्ति भी गिर गई थी, अर्थात् वस्तुओं के भाव बहुत बढ़ गये थे।
(5) सिद्धान्त की केवल दीर्घकालीन व्यावहारिकता- अन्य सिद्धान्तों को भाँति क्रय शक्ति समता सिद्धान्त द्वारा विनिमय दर का निर्धारण भी दीर्घकालीन प्रवृत्ति का द्योतक है। किन्तु दैनिक जीवन में इस सिद्धान्त का कोई महत्त्व नहीं है जो केवल दीर्घकालीन विवेचना करे। प्रो. जे. एम. केन्स ने इस संबंध में सही कहा है कि दीर्घकाल में सभी मृत्यु के ग्रास बन जायेंगे। इस कारण दीर्घकाल में तो कोई आर्थिक समस्या उत्पन्न नहीं होगी। किन्तु उस सिद्धान्त का क्या महत्त्व है जो अल्पकालीन विवेचना नहीं करता हो। वस्तुतः मौद्रिक कारण अल्पकाल में ही इतना उपद्रव मचा देते हैं कि दीर्घकाल की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती है।
(6) सामान्य अनुभव के विरुद्ध- व्यवहार में कोई भी उदाहरण नहीं मिलता है जिससे यह ज्ञात हो सके कि विनिमय दर में क्रय शक्ति तुल्यता सिद्धान्त द्वारा निर्धारित होती है। गत कुछ वर्षों में ऐसे उदाहरण सामने आये हैं जिनमें विनिमय दर क्रय शक्ति तुल्यता सिद्धान्त के आधार पर निर्धारित नहीं हुई थी। उदाहरणार्थ-अमेरिका भारी संरक्षण की नौति (Lariff Policy) अपनाकर आयात व्यापार सीमित रख सका जिसके परिणामस्वरूप डालर का बाह्य मूल्य बहुत ऊँचा बनाये रखने में सफल रहा जबकि डालर का आन्तरिक मूल्य लगभग पूर्ववत् ही रहा है। यह अनुभव क्रय शक्ति समता सिद्धान्त के विपरीत है।
(7) निश्चित समता नहीं- क्रय शक्ति समता टकसाली समता (Mint par) की भौति निश्चित समता नहीं है, क्योंकि यह विभिन्न देशों के निर्देशांकों पर निर्भर है जो सदैव बदलते हैं और जो साधारण तथा औसत की ओर संकेत करते हैं।
(8) नियमित विनिमय दरों पर लागू नहीं- क्रय शक्ति तुल्यता सिद्धान्त का व्यावहारिक महत्त्व अब अत्यन्त कम हो गया है, क्योंकि लगभग सभी देशों में नियंत्रित विनिमय दरें कार्यशील हैं जिनका इस सिद्धान्त से कोई संबंध नहीं है। यह सिद्धान्त केवल स्वतंत्र दशाओं में विनिमय दर निर्धारण के विषय में जानकारी दे सकता है। किन्तु यह कृत्रिम प्रबन्धित विनिमय दरों के विषय में कुछ भी नहीं बताता है।
(9)तृतीय देश की आर्थिक क्रियाओं का प्रभाव- विनिमय दर निश्चित करने का क्रय शक्ति समता सिद्धान्त इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने में असफल रहा है कि किन्हीं दो राष्ट्रों के आन्तरिक मूल्यों में बिना परिवर्तन हुए भी इन दोनों राष्ट्रों के आर्थिक संबंधों में परिवर्तन से विनिमय दर में परिवर्तन हो सकता है, यथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार क्षेत्र में किसी तृतीय प्रतिस्पद्धों देश के प्रभाव के कारण इन दोनों देशों के पारस्परिक आयातों व निर्यातों पर अवश्य ही प्रभाव पड़ेगा।
(10) दीर्घकाल में भी सिद्धान्त का किन्हीं शर्तों पर लागू होना- यह सिद्धान्त दीर्घकालीन अवधि में विनिमय दरों में परिवर्तनों को जानने की विधि है, किन्तु दीर्घकाल में यह सिद्धान्त तभी लागू होगा, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार की आवश्यक शर्तें अपरिवर्तित रहें। किन्तु गतिशील विश्व में इन शर्तों में स्थिरता रहने की आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि विदेशी माल की माँग और घरेलू माल की पूर्ति में परिवर्तन होते रहते हैं। दो देशों के मध्य व्यापारिक शों में भी उसी के अनुसार परिवर्तन आवश्यक होंगे।
(11) संदेहास्पद मार्गदर्शक- प्रो. जेकच वाइनर (Jacob Viner) के अनुसार, इस सिद्धान्त में यातायात व्ययों (Cost of Transportation) का ध्यान नहीं रखा गया है। यदि एक देश में यातायात व्यय दूसरे देश की अपेक्षा अधिक है तो प्रथम देश के मूल्य स्तर दूसरे देश की तुलना में अधिक होंगे। इतना ही नहीं, प्रो. एन्जिल के अनुसार न केवल आयात व्ययों का वरन् नये बाजार में बिक्री लागत व्यापारिक सूचना और प्रेरणा के अभाव का प्रभाव भी मूल्य स्तरों पर पड़ता है जिसका ध्यान इस सिद्धान्त में नहीं रखा गया है। अतः प्रो. फ्रेड्रिक वेन्हम (Fredric Benham) का यह कथन है कि यह सिद्धान्त ‘संदेहास्पद’ पथप्रदर्शक है, उचित प्रतीत होता है।
(12) परिवहन व्यय की उपेक्षा- इस सिद्धान्त में वस्तुओं के परिवहन व्यय की विनिमय निर्धारण में उपेक्षा की गयी है। इस संबंध में प्रो. ऐन्जल ने कहा है कि “परिवहन ब्यय के अतिरिक्त अन्य व्यय, जैसे- विज्ञापन एवं पैकिंग आदि की क्रय शक्ति समता को भंग कर सकते हैं।”
(13) माँग की लोच संबंधी गलत मान्यता- इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि दो देशों में वस्तुओं की माँग की लोच इकाई के बराबर है अर्थात् जिस अनुपात में मूल्य स्तर में परिवर्तन होता है, उसी अनुपात में विदेशों में वस्तु की माँग में परिवर्तन होता है। यह मान्यता गलत है, क्योंकि व्यवहार में हम देखते हैं कि वस्तुओं की माँग से घटत-बढ़त मूल्य स्तर में घटत-बढ़त अनुपात में नहीं होती है अर्थात् माँग की लोच इकाई से कम या अधिक हो सकती है।
(14) विनिमय दर को पहले ही मानकर चलना अनुपयुक्त है- यह सिद्धान्त विनिमय दर को कायम न कर विनिमय को पहले ही मानकर चलता है। दो देशों की मुद्राओं की समता निकालने से पूर्व किसी एक विनियम दर को मान लेते हैं, क्योंकि इस विनिमय दर के बिना दोनों देशों की मुद्राओं की क्रय शक्तियों को समता व्यक्त करना असम्भव है। इस प्रकार यह सिद्धान्त विनिमय दर के निर्धारण की व्याख्या न करके केवल उसके परिवर्तनों की व्याख्या करता है