Meaning of Management: संकुचित अर्थ में, सामान्य उद्देश्य एवं लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वयं (प्रबन्धक) कार्य करते हुए अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने को प्रबन्ध कहते हैं। किन्तु विस्तृत अर्थ में, प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जिसमें नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण, समन्वय एवं नियन्त्रण सम्मिलित हैं। इनमें से प्रत्येक में कला एवं विज्ञान दोनों का प्रयोग किया जाता है और पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है।
प्रबन्ध की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) कून्ट्र्ज के शब्दों में, “प्रबन्ध संस्था के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय एवं भौतिक संसाधन का प्रभावपूर्ण उपयोग है
(2) कून्ज एवं व्हीरिच के मतानुसार, “प्रबन्ध किसी आन्तरिक वातावरण के निर्माण एवं अनुरक्षण की एक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक समूह में कार्य करते हुए निर्धारित उद्देश्यों को दक्षतापूर्ण पूरा करते हैं।”
वे आगे यह भी लिखते हैं कि “प्रबन्ध एक निष्पादन प्रतिरूप है और व्यवस्थित ज्ञान का एक समूह है जिस पर प्रबन्धकीय कला निर्भर करती है।”
इस प्रकार प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो संस्था के सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न व्यक्तियों के व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयासों के नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय, अभिप्रेरण एवं नियन्त्रण से सम्बन्ध रखता है।
प्रबन्ध की विशेषताएँ (Characteristics of Management)
प्रबन्ध में निम्नलिखित विशेषताएँ देखी जा सकती हैं
(1) उद्देश्यपूर्ण या उद्देश्यपरक – प्रबन्ध उद्देश्यपूर्ण होता है अर्थात् प्रबन्धकीय क्रिया का स्पष्ट या गर्भित उद्देश्य होता है जिन्हें प्राप्त करने के लिए प्रबन्ध किया जाता है। प्रबन्ध पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति का एक प्रभावी साधन है, जिसे एकत्रित किया जाता है और उपयोग में लिया जाता है।
(2) मानवीय क्रिया-प्रबन्ध एक बौद्धिक कार्य होने के नाते एक मानवीय क्रिया है और मानवीय प्रयासों से संबंधित होता है। समस्त प्रबन्धकीय कार्य मानव द्वारा ही किये जाते हैं। यही नहीं, लागत पर अधिकतम उत्पादन अथवा सफलता प्राप्त करने के लिये श्रम शक्ति का अधिकतम कुशलतापूर्वक उपयोग करना भी आवश्यक होता है।
(3) सामूहिक प्रयासों से संबंधित-प्रबन्ध किसी एक व्यक्ति के प्रयासों से सम्बन्धित न होकर समूह के प्रयासों से संबंधित होता है। समूह के प्रयासों द्वारा उद्देश्यों को प्राप्त करना ही वास्तव में प्रबन्ध माना जाता है। इसके अतिरिक्त प्रबन्धक स्वयं भी समूह से अलग नहीं होते हैं, अपितु स्वयं भी समूह के अंग होते हैं।
(4) प्रबन्ध एक अमूर्त शक्ति है-प्रबन्ध एक अमूर्त, अदृश्य, कौशल एवं विवेकपूर्ण शक्ति है। इसका कारण यह है कि इस शक्ति का पता तो कार्य की उपयुक्त दशाओं, कार्य के परिणामों, कर्मचारियों के मध्य आपसी सम्बन्धों से ही लगाया जा सकता है। इसके विपरीत यदि ये बातें परिलक्षित न हों तो इसे कुप्रबन्ध कहा जायेगा।
(5) पदानुक्रम व्यवस्था-प्रबन्ध अधिकारों की एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है। इसी कारण व्यक्तियों की स्थितियों, भूमिकाओं, सत्ता एवं दायित्व में भेद हो जाता है। संस्था में कर्मचारियों के निर्देशन की आवश्यकता होती है। बड़े अधिकारी अपने अधीनस्थों को आदेश-निर्देश देते हैं,, नियमानुसार कार्य करवाते हैं और कार्य की प्रगति के बारे में पूछते हैं।
(6) स्वामित्व से पृथक् – प्रबन्ध का स्वामित्व से पृथक् होना भी एक विशेषता है। इसकी यह मान्यता है कि स्वामित्व एवं प्रबन्ध जब साथ-साथ होते हैं तो स्वार्थ की रक्षा अधिक होती है। यही नहीं प्रबन्ध की जवाबदेयता का निर्माण होता है और प्रबन्ध की व्यापकता एवं विकास का मुख्य कारण भी माना जाता है।
(7) प्रबन्ध परिस्थित्यात्मक/गत्यात्मक होता है-प्रबन्ध परिस्थित्यात्मक होता है क्योंकि यह परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होता है। परिस्थितियों, समय एवं वातावरण के अनुसार प्रबन्ध की विधियों, तकनीकों, साधनों एवं सिद्धान्तों में परिवर्तन होता रहता है।
(8) एक अधिकार-सत्ता प्रणाली-प्रबन्ध एक अधिकार-सत्ता प्रणाली है जिसमें विभिन्न अधिकारियों के अधिकारों का क्रम निर्धारित रहता है। प्रत्येक संस्था में एक ऐसा वर्ग होता है जो अन्य व्यक्तियों के प्रयासों का नियोजन, संगठन, समन्वय, अभिप्रेरण एवं नियन्त्रण करने हेतु आवश्यक निर्णय लेता है, नेतृत्व करता है, आदेश-निर्देश देता है। यही वर्ग उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आवश्यक नियम बनाता है, क्रियाओं का क्रम निर्धारित करता है और उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयास भी करता है।
(9) विभिन्न शास्त्रों से सम्बद्ध-प्रबन्ध विभिन्न ज्ञान-शास्त्रों से सम्बद्ध ज्ञान का भण्डार है क्योंकि प्रबन्ध के विकास में विभिन्न शास्त्रों या विज्ञानों, जैसे-मनुष्य, शरीर-रचना शास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र आदि का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है