भुगतान संतुलन में असाम्य/प्रतिकूलता का आशय (Meaning of Dis-equilibrium/Unfavourable of Balance Payment)
भुगतान संतुलन में असाम्य/प्रतिकूलता/असंतुलन का अर्थ ऐसी स्थिति से है, जिसके अन्तर्गत स्वचालित प्राप्तियाँ एवं भुगतानों में अंतर स्पष्ट होता है। अन्य शब्दों में यदि प्राप्तियों (जमा) का योग भुगतानों (नाम) के योग से अधिक है तो भुगतान संतुलन में आधिक्य (Surplus) एवं भुगतानों का प्राप्तियों से अधिक योग होने पर भुगतान संतुलन में घाटा (Deficit) कहते हैं।
चालू खाते के दृष्टिकोण से चालू खाते को जमा एवं नाम के अंतर को भुगतान संतुलन में असंतुलन कहते हैं। ‘जमा’ का योग ‘नाम’ के योग से अधिक होने पर भुगतान संतुलन में ‘आधिक्य’ एवं ‘नाम’ का योग ‘जमा’ से अधिक होने पर भुगतान संतुलन में ‘घाटा’ कहते हैं। इस प्रकार यदि भुगतान संतुलन में आधिक्य की स्थिति है तो भुगतान संतुलन की अनुकूलता (Favourable Balance of Payment) एवं घाटे की स्थिति को भुगतान संतुलन को प्रतिकूलता (Unfavourable Balance of Payment) भी कहते हैं।
भुगतान संतुलन में अस्साम्य के विचार को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है
(1) संरचनात्मक असाम्य जब किसी देश के आयात-निर्यात की माँग एवं पूर्ति अथवा दोनों में मूलभूत परिवर्तन हो जाने के फलस्वरूप भुगतान संतुलन में असाम्य उत्पन्न हो जाता है तो इसे संरचनात्मक असाम्य (Structural Dis-equilibrium) कहते हैं। इसके अनेक कारण हैं, जैसे उत्पादन की संरचना में परिवर्तन, माँगों के स्वरूप में परिवर्तन, व्यापार के स्वरूप में परिवर्तन और व्यापार की शर्तों में परिवर्तन आदि।
(2) चक्रीय असाम्य व्यापार-चक्रों के कारण उत्पन्न भुगतान संतुलन में असाम्य को चक्रीय असाम्य (Cyclical Dis-equilibrium) कहते हैं। इसे मौद्रिक असाम्य भी कहते हैं, क्योंकि यह मुद्रास्फीति एवं मुदा संकुचन के कारण उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त मूल्य परिवर्तन, मौद्रिक आय में परिवर्तन तथा विनिमय दर परिवर्तन आदि भी कारण हैं।
(3) चिरकालिक असाम्य भुगतान संतुलन में दीर्घकालीन असाम्य अर्थव्यवस्था को विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर अग्रसर होने पर होने वाले दीर्घकालीन परिवर्तनों के कारण उत्पार होती है तो उसे चिरकालिक असाम्य (Secular Dis-equilibrium) कहते हैं। इसके अनेक कारण हैं- पूँजी निर्माण में वृद्धि, औद्योगीकरण में वृद्धि, जनसंख्या में वृद्धि, बाजार का विस्तार आदि