Different School of Management Thought: आज प्रबन्ध के क्षेत्र में अनेक विचारधाराएँ हैं जिन्हें कुछ समूहों में विभक्त करना वास्तव में एक कठिन कार्य है। यही कारण है कि रेलिफ एम. स्टोग डिल ने प्रबन्ध का विश्लेषण करने के लिए 18 विचारधाराएँ और कून्ट्ज एण्ड ओ ‘डोनेल ने 11 विचारधाराएँ बनायीं।
संक्षेप में, प्रबन्ध विचारधारा के विभिन्न स्कूल उनकी मान्यता एवं योगदान निम्नलिखित
(1) प्रबन्ध प्रक्रिया विचारधारा-प्रबन्ध की इस विचारधारा के प्रतिपादक हेनरी फेयोल हैं। इनकी यह मान्यता है कि प्रबन्ध व्यक्तियों के संगठित समूह से या उसके द्वारा कार्य करवाता है। इसमें प्रबन्ध के कार्यों-नियोजन, संगठन, नियुक्तियाँ, निर्देशन एवं नियन्त्रण को सम्मिलित किया गया है। इस विचारधारा ने प्रबन्ध के कई सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।
प्रबन्ध प्रक्रिया विचारधारा ने प्रबन्ध के विकास में निम्नलिखित योगदान किया है-
(i) इस विचारधारा के सिद्धान्त उच्च प्रबन्धकों एवं सभी स्तरों पर कार्यरत प्रबन्धकों द्वारा उपयोग में लाये जा सकतें हैं ।
(ii) प्रबन्ध के सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रबन्धकों के अनुभव एवं व्यावहारिक आधार परकिया गया है।
(iii) ये सार्वभौमिक सत्य, अनुसंधान, कार्य के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
(iv) इन सिद्धान्तों को व्यावसायिक, सरकारी, राजनीतिक संस्थाओं पर समान रूप से लागू किया जा सकता है।
(v) प्रबन्ध एक कला है, जिसे सिद्धान्तों की समझ एवं प्रक्रिया द्वारा सुधारा जा सकता है।
यह विचारधारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं परिवर्तन की विरोधी है। प्रबन्ध को केवल जन्मजात प्रतिभा के रूप में मानकर चलती है। इसलिए इस विचारधारा की काफी आलोचना की. गयी है।
(2) अनुभवाश्रित विचारधारा-इस विचारधारा की यह मान्यता है कि प्रबन्ध,प्रबन्धकों के अनुभवों का अध्ययन है। इसलिए यदि प्रबन्धकों के अनुभवों का अध्ययन किया जाये और उनसे कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाले जायें तो वे प्रबन्धकों के कार्य एवं व्यवहार में बहुत सहायक हो सकते हैं। यही नहीं, यह विचारधारा यह भी मानती है कि व्यक्तिगत परिस्थितियों में क्या किया गया है और क्या नहीं किया है, की जानकारी प्राप्त करके, तुलनात्मक परिस्थितियों का अध्ययन किया जा सकता है और प्रबन्ध के कार्य, व्यवहार एवं प्रक्रिया में सुधार लाया जा सकता है
अनुभवाश्रित विचारधारा का प्रबन्ध में योगदान इस प्रकार है-
(i) तुलनात्मक प्रबन्ध सिद्धान्तों का विकास किया है।
(ii) प्रबन्ध अनुभवों का अध्ययन है।
(iii) मानवीय व्यवहार परिवर्तनशील है। अतः पूर्व अनुबन्धों एवं परिवर्तनशील परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्णय लेना चाहिए।
(iv) इसमें समस्या का अध्ययन करने के लिए ‘मामला अध्ययन विधि’ का प्रयोग किया जाता है।
(v) प्रबन्ध एक कला है जिसे सिद्धान्तों की समझ एवं प्रक्रिया द्वारा सुधारा जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह विचारधारा अनुभव पर आश्रित है जो वास्तव में मनुष्य का सबसे बड़ा शिक्षक है। किन्तु नयी समस्याओं के समाधान का कोई तरीका नहीं बताती है और किसी भी विज्ञान का सामान्यीकरण केवल अनुभवों के आधार पर ही नहीं किया जा सकता है।
(3) सामजिक प्रणाली विचारधारा-प्रबन्ध की इस विचारधारा के प्रतिपादक चेस्टरआई. बर्नार्ड हैं। इनकी यह मान्यता है कि प्रबन्ध एक ऐसी सामाजिक प्रणाली है जो सांस्कृतिक अन्तर्सम्बन्धों की प्रणाली है, जो सांस्कृतिक वातावरण एवं कई दबावों से प्रभावित होती है। यह विचारधारा इस बात पर बल देती है कि कर्मचारियों की विभिन्न भावनाओं, स्वरूपों, मतभेदों की समस्याओं को औपचारिक संगठन के स्थान पर अनौपचारिक संगठन के माध्यम से आसानी से निपटाया जा सकता है। इसका कारण यह है कि सामाजिक सम्बन्धों का विकास सामाजिक परम्पराओं से ही होता है और जिन्हें अनौपचारिक क्रियाओं के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
सामाजिक प्रणाली विचारधारा के योगदान निम्नलिखित हैं-
(i) संगठित उपक्रम एक सामाजिक अंग है।
(ii) औपचारिक संगठन, संगठन में कार्यरत इन समूहों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों को प्रकट करता है।
(iii) संगठनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु समूह के सदस्यों का सहयोग आवश्यकहै।
(iv) संगठन के उद्देश्यों एवं समूह के उद्देश्यों के मध्य एकता स्थापित की जा सकती
(v) इस विचारधारा ने सहकारिता के सिद्धान्त, अन्तर्निर्भर क्रिया प्रणाली और प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति पर बल दिया है।
इस प्रकार यह विचारधारा प्रबन्ध को सामाजिक एवं समूह व्यवहार के विश्लेषण की जानकारी देता है।
(4) मानवीय सम्बन्ध विचारधारा- इस विचारधारा के प्रतिपादक एल्टन मेयो हैं। इनका यह मानना है कि मानवीय सम्बन्ध मनोवैज्ञानिक सामाजिक संगठन है। अतः संगठन में कर्मचारियों के मान-सम्मान को स्वीकार किया जाना चाहिए और प्रबन्धकों को अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों तथा समूह सम्बन्धों को समझना चाहिए। श्रमिक को केवल आर्थिक मानव स्वीकार न करके हुये उन्हें संगठन में मान्यता एवं सहभागिता प्रदान की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रबन्धक का यह उत्तरदायित्व है कि श्रमिकों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उनकी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं की तुष्टि करें।
मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का प्रबन्ध के क्षेत्र में निम्नलिखित योगदान हैं-
(i) प्रबन्धकों को श्रमिकों से व्यवहार करते समय उनकी वैयक्तिक भावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए।
(ii) इस विचारधारा ने वैयक्तिक प्रयत्नों की तुलना में समूह भावना को प्रोत्साहित कियाहै।
(iii) कर्मचारियों को दण्ड एवं भय के स्थान पर स्व-नियन्त्रण करना हैं ।
(iv) प्रबन्धकों द्वारा कर्मचारियों/श्रमिकों के कार्यों और सृजनात्मक विचारों को मान्यता दी जानी चाहिए।
(v) इस विचारधारा ने श्रमिक को पहले मानव एवं बाद में श्रमिक है, पर जोर दिया।
इस विचारधारा ने प्रबन्ध समस्याओं का समाधान करने हेतु मानवीय व्यवहार अपनाने और श्रमिकों को सहभागिता देने पर जोर दिया है। किन्तु इसकी यह आलोचना की जाती है कि यह विचारधारा मानव पर अधिक ध्यान केन्द्रित करती है।
(5) परिमाणात्मक विचारधारा-इस विचारधारा के समर्थकों का मानना है कि प्रबन्ध एक तर्कपूर्ण प्रक्रिया है जिसे गणितीय मॉडल तथा परिमाणात्मक तथ्यों द्वारा व्यक्त एवं स्पष्ट किया जा सकता है। इस विचारधारा का मुख्य ध्यान मॉडल पर केन्द्रित रहता है जिसके माध्यम से समस्या को उसके आधारभूत सम्बन्धों एवं कुछ निश्चित लक्ष्यों के संदर्भ में व्यक्त किया जा सकता है।
परिमाणात्मक विचारधारा ने प्रबन्ध के विकास में निम्न योगदान दिया
(ⅰ) यह सम्पूर्ण व्यवस्था से चुने हुए घटकों पर एक साथ निर्णय करती है और सभी घटकों पर निर्गयन के प्रभावों की समीक्षा करती है।
(ii) इस विचारधारा ने सम्पूर्ण व्यवस्था को आसानी से समझने का आधार दिया है। (iii) प्रबन्धकीय समस्याओं के निदान के लिए अत्यन्त आधुनिकी तकनीकों को अपनाने लिए यह विचारधारा काफी उपयोगी साबित हई है।
के इस विचारधारा की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि इसने उपयुक्त तत्वों की आवश्यकता पर अधिक बल दिया है। यही नहीं, प्रबन्धकीय माननीय व्यवहारों की उपेक्षा की है।
(6) तुलनात्मक प्रबन्ध विचारधारा-इस विचारधारा की यह मान्यता है कि प्रबन्ध संस्कृति बद्ध होता है। अतः प्रबन्धकीय सिद्धान्तों का प्रयोग एक विशिष्ट संस्कृति तक ही सीमित हो सकता है। प्रत्येक देश की परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, जो प्रबन्ध को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। अतः प्रबन्ध सार्वभौमिक न होकर संस्कृति-बद्ध होता है और प्रबन्ध के सामान्य सिद्धान्त सभी देशों में समस्या का मापदण्ड नहीं है। लेकिन अनेक देशों के प्रबन्ध का तुलनात्मक अध्ययन करके कुछ सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन अवश्य किया जा सकता है-
तुलनात्मक प्रबन्ध विचारधारा के योगदान इस प्रकार हैं-
(i) यह विचारधारा देश के तीव्र आर्थिक विकास हेतु प्रबन्धकीय ज्ञान का हस्तान्तरण करने की जानकारी देती है।
(ii) इसका उपयोग विकसित राष्ट्रों के योग्य शासक एवं प्रबन्धक करते हैं।
(iii) इस विचारधारा से पूँजी, तकनीकी ज्ञान, कौशल, सिद्धान्त, कार्य एवं विधियों को गतिशीलता मिलती है।
इस विचारधारा की यह आलोचना की जाती है कि इसमें जिन प्रतिरूपों का उपयोग किया है, वे पूर्ण विकसित नहीं हैं और उनका व्यावहारिक उपयोग करना भी एक कठिन कार्य है।
(7) निर्देशात्मक विचारधारा-निर्देशात्मक विचारधारा की यह मान्यता है कि प्रबन्धकों का कार्य नीति निर्धारण ही नहीं है अपितु उनका क्रियान्वयन भी है। अतः उनको उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक आदेश-निर्देश देने पड़ते हैं। अतः उनमें ऐसा करने की क्षमता होनी चाहिए। यही नहीं, प्रबन्धक अपने ज्ञान, योग्यता एवं अनुभव के आधार पर कर्मचारियों की अपेक्षा अधिक सही निर्णय ले सकते हैं और उन निर्णयों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए निर्देश दे सकते हैं।
इस विचारधारा का प्रबन्ध को जो योगदान रहा है, वे इस प्रकार हैं-
(i) इसने प्रबन्ध के सिद्धान्तों में ‘आदेश-निर्देश का सिद्धान्त’ बताया।
(ii) जो व्यक्ति शक्ति एवं अधिकार रखता है, उसे प्रबन्ध विशेषज्ञ के रूप में मान्यता दी जायेगी।
(iii) इस विचारधारा ने संस्था के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न बातों की जानकारी रखने पर जोर दिया है।
इस प्रकार यह विचारधारा संगठनात्मक कलेवर, अधिकारों एवं दायित्वों पर अधिक बल देती है। किन्तु सहभागिता विचारधारा की विरोधी है।
(8) वैज्ञानिक प्रबन्ध विचारधारा- इस विचारधारा के प्रवर्तक एफ. डब्ल्यू. टेलरहैं। इनकी यह मान्यता है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए एक सर्वश्रेष्ठ विधि होती है, एक ही कार्य को कई भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग को विभिन्न श्रमिक समूह द्वारा पूरा करवाया जाता है, प्रत्येक कार्य के लिए प्रमापित समय, सामग्री एवं कार्य-विधि निश्चित की जा सकती है; श्रमिकोंको प्रेरणात्मक मजदूरी विधि के आधार पर प्रतिफल प्रदान किया जाय और श्रमिकों की चयन एवं प्रशिक्षण वैधानिक विधि से किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक प्रबन्ध के योगदान निम्नलिखित हैं-
(i) संस्था के उद्देश्यों की आसानी से प्राप्ति हो जाती है।
(ii) विशिष्टीकरण से व्यक्तियों की योग्यताओं, गुणों का पूर्ण उपयोग सम्भव है।
(iii) इस विचारधारा ने कार्य को करने की एक सर्वश्रेष्ठ विधि की खोज की है।
(iv) श्रमिकों की नियुक्ति सम्बन्धी कार्य वैज्ञानिक आधार पर किये जाते हैं।
(v) इस विचारधारा ने कार्य निष्पादन की नियोजित एवं मितव्ययी विधि बतायी।
यह विचारधारा उत्पादकता-प्रधान होने के कारण मानवीय पहल की उपेक्षा करती है। यही नहीं, विशिष्टीकरण पर ज्यादा जोर देती है जिससे बेरोजगारी ही नहीं बढी है अपितु श्रमिकोमें प्रेरणा की समाप्ति भी हुई है।
(9) स्थित्यात्मक विचारधारा- इस विचारधारा की यह मान्यता है कि प्राप्य ज्ञान एवंउपक्रम के उपलब्ध साधनों के कुशल उपयोग को व्यवहार में लाना परिस्थितियों पर निर्भर करत है अपितु किसी भी उपक्रम की सफलता समय की माँग, तकनीकी, वातावरण तथा सदस्यों के आवश्यकता के अनुरूप कार्य करने पर निर्भर है और यह तब ही सम्भव है, जबकि प्रबन्ध को स्थित्यात्मक माना जाये।
प्रबन्ध के स्थित्यात्मक विचारधारा के योगदान निम्नलिखित हैं-
(i) यह विचारधारा सिद्धान्त एवं व्यवहार की खाई को पाटती है।
ii) यह एक व्यावहारिक विचारधारा है क्योंकि स्थिति का वास्तविक आकलन करती है। (
(iii) यह विचारधारा परिणाम-परक है और प्रबन्धकीय समस्याओं की व्यावहारिकता प्रस्तुत करती है।
इस विचारधारा से प्रबन्ध कला है अथवा विज्ञान, के अन्तर का आधार तो बनाया ज सकता है, लेकिन पृथक् से इसे विचारधारा नहीं मान सकते हैं।
(10) अन्य विचारधाराएँ-
(i) व्यवहार विज्ञान विचारधारा- क्या कार्य करना है और क्यों करना है आदि को मानव व्यवहार के सन्दर्भ में परखा जाना आवश्यक है। यह मानव व्यवहार को उद्देश्यपूर्ण एवं वैज्ञानिक ढंग से समझने का प्रयास करती है।
(ii) सहभागिता विचारधारा- इस विचारधारा की यह मान्यता है कि कर्मचारियों कोभी प्रबन्ध में सहभागी बनाना चाहिए और उन समस्त निर्णयों में उनको सम्मिलित भी करना चाहिए जो उन्हें प्रभावित करते हों। यही नहीं इसका यह भी मानना है कि एक से अधिक व्यक्ति सदैव अच्छा निर्णय ले सकते हैं और एक की तुलना में अनेक मुखिया रहते हैं।
(iii) नियमनिष्ठ विचारधारा- इस विचारधारा की यह मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्तिउस दशा में पूर्ण सहयोग से कार्य कर सकता है, जबकि उन्हें अपने कार्य, अधिकार एवं दायित्व का पूर्णतया सही ज्ञान हो। इस हेतु कार्य विवरण, संगठन चार्ट, विभागीकरण तथा प्रबन्ध को श्रेष्ठ व्यवस्था आदि का उपयोग किया गया हो।
(iv) निरीक्षण एवं सन्तुलन विचारधारा-यह विचारधारा मानती है कि प्रत्येक व्यक्ति अधिकारों एवं शक्तियों में वृद्धि का इच्छुक रहता है। अतः उन पर नियन्त्रण रखना जरूरी है। कर्मचारियों के व्यवहारों को भी मर्यादित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रत्येक स्थान एवं कार्य में निरीक्षण, नियन्त्रण एवं सन्तुलन की स्थापना करना जरूरी है, ताकि कार्य सुचारू रूप से चलता रहे।
(v) क्रियात्मक प्रबन्ध विचारधारा- इसकी यह मान्यता है कि प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जो कि विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिये स्वीकृत सामान्य सिद्धान्तों का इस प्रकार संयोजन करती है, जिससे अपने निर्धारित लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर सके। इस प्रकार यह विचारधारा काफी सरल एवं विस्तृत होने के साथ-साथ विज्ञान एवं कला के ज्ञान का न्यायोचित मिश्रण भी है।